Monday, 6 March 2017

Friday, 3 March 2017

जोधपुर का धमाका

जोधपुर का धमाका

18 दिसंबर, 2012 की अर्धरात्रि के समय जोधपुर के लोगों को एक तीव्र धमाके की आवाज ने डरा दिया। लेकिन यह धमाका कहां हुआ, आवाज किस चीज की थी, यह आज तक पता नहीं चल पाया है। यह आवाज ऐसी थी जैसे कोई बहुत बड़ा बम फटा हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। जोधपुर का यह धमाका आज तक एक सवाल ही ह आगर उस दिन यह रहस्यमय धमाका केवल जोधपुर में ही हुआ होता तो शायद इसे एक इत्तेफाक मानकर नजरअंदाज भी कर दिया जाता। लेकिन इसी तरह का रहस्यमय धमाका इंग्लैंड से लेकर टेक्सास तक हुआ। यह सब करीब एक महीने तक चला लेकिन किसी को इस धमाके का कारण पता नहीं चल पाया।

Thursday, 2 March 2017

रेहष्यमाई

2013, एलिसा लैम को एक होटल के छत पर रखी टंकी में मृत पाया गया. उस होटल के सी सी टीवी कैमरे की रिकॉर्डिंग में उस रात एलिसा को लिफ्ट में देखा जा सकता है. उस रात ऐसा लगता है जैसे वह किसी से छुप रही है और लिफ्ट से बाहर किसी को देख रही है, परन्तु ऐसा कोई वस्तु या इंसान दिखाई नहीं दिया. अंततः उसका मृत शरीर टंकी में हफ़्तों बाद पाया गया.
यह मर्डर मिस्ट्री आज तक रहस्य है. उसके मृत शरीर से किसी अलकोहल या ऐसा कोई नशीला पदार्थ नहीं मिला. तो वह अदृश्य क्या था जो पीछा कर रहा था?

Tuesday, 28 February 2017

हँसी की बीमारी

1962, तंज़ानिया ( तब टांगञानिका). तंज़ानिया के कशाशा गाँव पास के एक बोर्डिंग स्कूल के तीन क्षत्राओं से शुरू हुआ हँसी का सिलसिला149 में से 95 शिष्यों में फैल गया. कुछ घंटों से ले कर 16 दिनों तक यही चलता रहा. इससे 12 से 18 साल के सभी शिष्य प्रभवित हुए. इससे शिक्षकों में से कोई प्रभावित नहीं था लेकिन इससे कोई अध्ययन-अध्यापन नहीं हो पा रहा था और कोई शिष्य एकाग्रचित नही हो पा रहा था. अंततः स्कूल को बंद कर दिया गया और सभी शिष्यों को घर भेज दिया गया, लेकिन यह महामारी उनसे गाँव में भी फैलने लगी. जिस गाँव से सबसे ज़्यादा लड़कियाँ थी, उस गाँव में अप्रैल से मई के बीच २१७ लोगों प्रभावित किया. अत्यधिक हँसने से उनके सांस संबंधी समस्या, दर्द, थकावट, मूर्छा जैसी समस्याएं होने लगीं.
जब स्कूल को दुबारा खोला गया तब भी यह समस्या नहीं सुलझी और फिर बंद करना पड़ा. बाद में स्कूल के खिलाफ केस दर्ज किया गया. आस पास गाँव में लगभग १००० लोग इससे प्रभावित हुए. सब कुछ ६ महीने के बाद एकाएक ख़त्म हो गया. लेकिन इसके पीछे क्या कारण था और कैसे इतने ज़्यादा लोग एक ही महामारी से ग्रसित हो गये यह आज तक रहस्य है.

Monday, 27 February 2017

रेहष्यमाई ब्रिज


बैंगलोर से 100 किलोमीटर पर स्थित इस पुल को शिमसा और हेमवती नदियों पर बनाया गया है. इसको कृष्णराज वड्यार चतुर्थ ने उनके दीवान सर एम. विश्वेश्वरैया के निर्देश पर 1940 में बनवाया था.
इस बांध के बारे में एक अजीब बात प्रचलित है की इस पुल से यदि आप बाइक से पार करने की कोशिश करेंगे तो आपकी बाइक पूरी तरह से रुक जाएगी और आपके बहुत प्रयास से भी ठीक नहीं होगी. कुछ बाइकर ने तो यहाँ तक अनुभव किया कि जब तक वह बैंगलोर नहीं पहुँच गए, उनकी बाइक लाख प्रयास से भी नहीं ठीक हुई.
ऐसा माना जाता है की इस बाँध को जहाँ बनाया गया है वहां एक बुढ़िया को दफनाया गया है. इसी वजह से यहाँ लोगों को ऐसी परेशानी होती है. कर्नाटक के कुछ हिन्दू जातियों में दफ़नाने की प्रथा है.
वैसे ऐसी घटनाओं को इत्तेफ़ाक़ माना जा सकता है, अंधविश्वास और भूत-प्रेत पर विश्वास तो मानव की ऐतिहासिक आदत रही है. हमारी यही अपील है कि बाइकर बेफिक्र होकर बाइकिंग करें और बाइक का नियमित जांच करवाएं और सर्विसिंग करना न भूलें. टूलबॉक्स लेकर चलें और पेट्रोल तो ज़रूर डलवाएं. सीरियसली!

Sunday, 26 February 2017

यहाँ हर 14 January को एक बकया होता है

हर वर्ष 14 जनवरी को मकर सक्रांति के दिन, सबरीमाला मंदिर में एक अजीब वाकया होता है. सबरीमाला मंदिर एक पर्वत पर एक दिव्य रोशनी जैसी दिखती है. लोगों का मानना है कि अयप्पा भगवान अपने भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए आते हैं.
इस रोशनी को देखने के चक्कर में भगदड़ और कितने भक्तों ने अपनी जानें गवांयी. आपको जान कर आश्चर्य होगा कि यह रहस्य सालों तक बना रहा. बाद में मंदिर की देखरेख करने वाली संस्था को यह मानना पड़ा कि यह मानव निर्मित था और यह देवदीपम् है.
खैर, यह तो अनसुलझा रहस्य नहीं है, फिर भी हम आपके सामने ऐसी सभी घटनाओं को शेयर कर रहे हैं जो कभी भी अनसुलझी घटना रही थी.

लदाख के वारे में

आक्साई चीन और लद्दाख के बीच का एक ऐसा इलाक़ा है जो पूरी तरीके से मानवरहित है. मुख्यतः, भारत और चीन के बीच का विवादित भूमि में आक्साई चीन चीन के तरफ के हिस्सा है और लद्दाख भारत के तरफ का हिस्सा है. इनके बीच इस इलाक़े में ना तो भारत कोई पेट्रोलिंग करता है और ना ही चीन. आस पास इलाक़े के लोगों ने इस क्षेत्र में कुछ ऐसी यु.एफ.ओ से मिलती जुलती गतिविधियाँ देखीं हैं. कुछ पर्यटकों ने ज़मीन से ऊपर उठती त्रिकोण आकार में बत्तियों वाले यान देखे हैं जिनको उड़नतश्त्री कहा जा सकता है.
206 में, गूगल अर्थ नें इस इलाक़े के कुछ ऐसे दृश्य लिए जिनसे इस इलाक़े में मिलिटरी-बेस होने का प्रमाण मिलता है, यह वही इलाक़ा है जिसपर चीन का कब्जा है.
किसी भी मिलिटरी-बेस में उड़नतश्त्री को आज तक शामिल नहीं किया है तो फिर ये क्या है. या तो यह बहुत बड़ी साजिश है या फिर इनके पीछे एलीयन का हाथ है.

जुड़वाँ बहने


1947, इंग्लैंड. एक कार एक्सीडेंट में दो जुड़वा बहनों की मृत्यु हो गयी. एक साल के बाद उनकी माँ को फिर जुड़वा बच्चियाँ पैदा हुईं. उन बहनों के जैसे ही उनके चेहरे और जन्म के निशान थे. आश्चर्य तो तब हुई जब वे उन्हीं खिलौनों को मांगती जो उनकी मृत बहनों की थी. इतना ही नहीं वो उसी पार्क का ज़िक्र करती जहाँ इनको कभी ऩही ले जया गया था और उनकी मृत बहनों जहाँ जाती थीं.
वैसे तो पुनर्जन्म पर काफ़ी शोध किया जाना बाकी है और कोई अवधारणा पर वैज्ञानिक आधार नहीं है, फिर भी ऐसी खबरों को आप क्या कहेंगे? यह तो एक अनसुलझा प्रश्न ही है.

Thursday, 23 February 2017

बुलेट बाबा


जोधपुर से 50 किलोमीटर पर स्थित एक मंदिर है, इसे नेशनल हाईवे 65 पर बनवाया गया है. लेकिन इस मंदिर में किसी देवता की मूर्ती नहीं है, यहाँ एक 350cc की रॉयल एनफील्ड बुलेट की पूजा होती है.
यह घटना आज से बीस साल पहले की होगी, ओम सिंह राठौर जब अपने घर की तरफ बुलेट से जा रहे थे तभी उनका हाईवे पर एक्सीडेंट हो गया और इसमें उनका स्पॉट पर निधन हो गया. पुलिस ने बुलेट बाइक और बॉडी को बरामद किया और थाने ले गयी. अगले दिन पाया गया कि वह बुलेट थाने से गायब थी. तलाश करने पर उसे फिर उसी एक्सीडेंट स्पॉट पर पाया गया. पुलिस ने उस बुलेट को फिर थाने में रखा गया, अगले दिन फिर बुलेट गायब. अंततः उस बुलेट कर मंदिर बनवा दिया गया और बुलेट बाबा के नाम से ओम सिंह राठौर अमर हो गए. उनको चढ़ावे में बुलेट ब्रांड की बियर भी चढ़ाई जाती है.
बुलेट बाबा की कहानी तो वाक़ई चौकाने वाली है. बुलेट बाबा की पूजा और आस्था तो एक बात है, लेकिन बुलेट का थाने से गायब होने अब भी एक अनसुलझा रहस्य है.

Wednesday, 22 February 2017

22 November 1962 की घटना


22 नवंबर 1962, टेक्सस, अमेरिका. इस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति को मौत के घाट उतार दिया गया था जब उनके कारों का काफिला जा रहा था. यदि उस दिन का फुटेज देखा जाय तो आपको एक भूरे जॅकेट और स्कार्फ पहनी महिला नज़र आएगी जो कैमरा ले कर तस्वीरें ले रही थी. इस केस का अध्ययन करनी वाली एजेंसी एफ बी आई ने कई बार अपील कर चुकी है की वो महिला अपनी पहचान कराए और अपने कैमरे के तस्वीरें सांझा करे. परंतु इस घटना को इतने साल होने के बाद भी ना तो वो महिला सामने आई और ना ही किसी उसके बारे में सूचना दी है.
उस महिला के बारे में कुछ लोगों ने अंदाज़ा लगाने की कोशिश की है लेकिन कोई भी सही सूचना नहीं दे सका है.

Tuesday, 21 February 2017

डी बी कपूर का अनसुलझा रहस्य

1971, पोर्टलॅंड, अमेरिका. फ्लाइट संख्या 305 जो पोर्टलॅंड से सिएटल को जा रही थी, सभी सवारियों में एक था - डैन कूपर. कूपर ने कला सूट पहना था और टाई भी लगाया था और बिज़नेस एग्ज़िक्युटिव जैसा दिखता था. कूपर ने विमान कर्मियों को बम दिखा कर विमान को उड़ाने की धमकी दी. उसने बीस हज़ार डॉलर की माँग की और साथ ही चार पैराशूट और विमान कर्मियों के लिए भोजन की माँग की. पूरे विमान को खाली किया गया और उसके शर्त के हिसाब से पोर्टलॅंड के उत्तरी हिस्से तक विमान को ले जया गया.
उसने अपने डॉलर और दो पैराशूट ले कर पोर्टलॅंड के पास विमान से छलाँग लगा दी. इस घटना के बाद कूपर को कभी भी देखा नहीं गया और ना ही उसका कोई प्रमाण मिला. उसके मरने की भी कोई सुराग हाथ नहीं लगा.

Monday, 20 February 2017

रेहष्यमाई अल्मोनियाम

1974 में, रोमेनिया. मूर्स नदी के किनारे एक अल्यूमिनियम का टुकड़ा मिला जो रेत में 35 फीट के अंदर दबा था. इस टुकड़े के साथ जो हड्डी मिली वह मैमोथ के युग की लगती है. यही बात है जो वैज्ञानिक समझ नही पा रहे. का टुकड़ा मिला जो रेत में 35 फीट के अंदर दबा था.
इस टुकड़े के साथ जो हड्डी मिली वह मैमोथ के युग की लगती है. यही बात है जो वैज्ञानिक समझ नही पा रहे. अल्यूमिनियम की खोज 1808 में हुई थी और इतने बड़े टुकड़े को 1884 तक नहीं बनाया गया था.
यदि उन हड्डी के टुकड़ों से उस टुकड़े के उम्र का अंदाज़ा लगाया जाय तो उसकी उम्र ११००० साल होगी. इतने साल पहले मानव ने अल्यूमिनियम की खोज नहीं की थी. इसका मतलब यह हुआ कि पृथ्वी में उस समय एलीयन थे जिनकी तकनीक इतनी विकसित थी. इसका कोई सही जवाब नहीं मिल सका है.
कुल मिला कर, यह एक अनसुलझा सवाल है जिसका जवाब मिलना बाकी है.

Sunday, 19 February 2017

रेडियो शार्ट वेव

कभी भी अगर आपने रेडियो में शार्ट-वेव लगाया होगा तो आपको तरह-तरह की आवाज़ों वाले चैनल सुनाई देंगे. कोई ओपेरा वाले चैनल जिसमें एक महिला अजीब तरीके से कोई हूँ.. हूँ. जैसे आवाज़ में सुनाई देगी तो कहीं कोई बात-चीत की आवाज़ देगी. ऐसे सभी चैनल तो ठीक हैं, लेकिन तभी आप को कोई बीप.. बीप.. बीप.. जैसी आवाज़ सुनाई देगी. ऐसे ही कोई चैनल सुनेंगे जिसमे एक महिला अंकों को बोलती रहेंगे. जैसे वैन.. नाइन.. फाइव.. ऐट.. इस सभी अंको में कुछ भी क्रम नहीं होगा. ये कोडेड मैसेज हैं जिसको मिलिट्री, नेवी या जासूसी संस्थाएं अपने लोगों को सन्देश भेजने के लिए प्रयोग करती है. ये सन्देश एक गणित के फार्मूला को उपयोग करके एन्क्रिप्ट किये गए होते हैं.
जैसे यदि मैसेज भेजना है 'i m ok', इसको भेजा जा सकता है 0901301511. इसमें हमने हर लेटर के स्थान को व्यक्त किया स्पेस को 0 से. पूरा पढ़ने पर यह कोई मोबाइल नंबर दिखेगा. यदि आपको दोस्त आपको यह मैसेज करता है तो पढ़ने वाला इससे फ़ोन नंबर समझेगा. यह तो बहुत बेसिक एन्क्रिप्शन है, लेकिन गुप्तचर संस्थाएं काफी कठिन फार्मूला प्रयोग में लाती है.
इतना ही नहीं, कुछ चैनल तो पियानो या बैंजो जैसा बजाते थे और फिर एक महिला कुछ अंक बदल-बदल कर बोलती है. सोचिये, कोई गुप्तचर अपने कमरे में रेडियो लगा कर सारे इंस्ट्रक्शन सुन कर उसे वापस किसी मशीन से डिकोड करके सन्देश लेता रहा होगा. फिर वह भी वापस मैसेज ट्रांस्मिट करता रहा होगा.
खैर, माना जाता है कि शीत-युद्ध के दौरान ऐसे बहुत से देश एक दूसरे की जासूसी करते थे और इंटरनेट तो था नहीं, उपाय था रेडियो, जिसमें शार्ट वेव से अच्छा क्या हो सकता था. हंगरी, बुल्गारिया, अमेरिका, रूस और न जाने कितने देश संदेह के घेरे में आते है, पर एक बात सबमें कॉमन यह है कि कोई भी इनको डिकोड नहीं कर सका और यह रहस्य, रहस्य ही बना रहा. समय बदला और अब ऐसे चैनल धीरे धीरे काम हो गए है, फिर भी कुछ चैनल अभी भी प्रसारण कर रहे हैं. न जाने कौन सुनाता है और जब कोई सुनाता है तो जरूर कोई सुनता होगा.

मुँहनोचवा का डर था 2002 मे

सन् 2002 में वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के आस पास के गावों में एक अजीब आसमान से आने वाले नीली और लाल रौशनी वाले किसी वस्तु का दहशत फैला था. यह लोगों के चेहरे पर चोट लगा देता था और इसी लिए इसको मुंह (चेहरा) + नोचवा (नोचने वाला) नाम दिया गया था.
मई और जून के गर्मी के दिनों में जहाँ गावों में सभी घर के बाहर सोते हैं ऐसे आसमान से आने वाले किसी वास्तु का डर उन सभी गावों में फैला था. सच्चाई का तो कुछ पता नहीं लेकिन लोग आपस में एक दूसरे से डर के हमले किये, कहीं किसी ने अपने बेटे को मारा मुंहनोचवा के भ्रम में तो किसी ने किसी पर लट्ठ चला दिए. अनेक घायल हुए और सात लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठे.

कई महीने तक लोग घायल हुए और बहुत लोगों ने ऐसे उड़ने वाले और हमला करने वाले मुंहनोचवा को देखा.

मुंहनोचवा की शुरुआत तो ठीक से नहीं पता लेकिन ये बात तय है कि प्रिंट मीडिया में इसकी रोज ख़बरें आती थीं. लेकिन इसपर प्रबुद्ध लोगों ने विश्वास नहीं किया था. करते भी कैसे, UFO किसी UP के गाँव में कैसे आ सकता है? UFO तो कैलिफोर्निया, मास्को और होन्ग-कोंग में ही आ सकते हैं. कितना अजीब हैं दूसरों का सफ़ेद झूठ भी सच मालूम होता है और अपनों के सच पर भी शक होता है.

UFO को किसी हर शहर की वित्तीय स्थिति के बारे में क्या पता? क्या अपने देश की गरीबी से पूरा ब्रह्माण्ड वाकिफ है? क्यों विश्वास नहीं आता सोचकर कि उड़नतश्तरी गाँव में उतरी. जब आप सुनते हैं किसी जॉन या जैक के न्यू जर्सी के उसके घर के यार्ड में एक उड़नतश्तरी उतरी, पूरा विश्वास आ जाता है. ऐसा क्यों है?

मुझे लगता है इसका कारण हैं हम अपने चीज़ों पर न जाने क्यों शर्मिंदा हैं? एक विदेशी पत्रकार आपके देश की गरीबी को दिखता है और वहीँ अपने देश के सिर्फ अच्छी चीज़ों को दिखता है. ड्रग्स में डूबे और पूरी तरह से तबाह, नीतिहीन, चरित्रहीन और शराब के नशे में डूबे लोग क्या उनके देश में नहीं हैं? क्या बिखरे परिवारों के बच्चे अपने माँ-बाप को एक साथ देखने के लिए दुआ नहीं करते होंगे? उनको दुःख नहीं होता होगा?

भाइयों, अपना देश विविधता वाला है, गरीब बहुत हैं तो अमीर भी बहुत हैं, अनपढ़ बहुत हैं तो विद्वान भी बहुत हैं, यह आपके ऊपर हैं की आप क्या देख रहे हैं? विश्व में सबसे ज्यादा ग्रेजुएट हमारे देश में हैं, इस बात पर कोई विदेशी बात नहीं करेगा, क्यों? और हम लोग विदेशी लोगों की बात ज्यादा विश्वसनीय मानते हैं, आज से नहीं ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़माने से. एक बार ज़रूर सोचियेगा.

दिल्ली का राज




लौह स्तंभ दिल्ली में क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ है. यह अपनेआप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है.
यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज ३७५ - ४१३) से निर्माण कराया गया, किंतु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, संभवतः ९१२ ईपू में.

स्तंभ की उँचाई लगभग सात मीटर है और पहले हिंदू व जैन मंदिर का एक हिस्सा था. तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके क़ुतुब मीनार की स्थापना की. लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८% है.
सामान्यतः, कोई भी लोहे की वस्तु समय के साथ जंग पकड़ लेती है लेकिन यह एक अनसुलझा रहस्य है कि इतने प्राचीन लौह के इस स्तम्भ पर जंग बिल्कुल भी नहीं है. पुरातत्व के जानकार और वैज्ञानोकों ने इसपर कितने ही प्रयोग किये लेकिन इस प्राचीन धरोहर के धातुकर्म का सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाये हैं.
बताया जाता है इसको तीस किलो लोहे को गलाकर बनाया गया है लेकिन ऐसा एक भी स्थान नहीं है जिसमे कोई जोड़ने या एक थोड़ा भी अंतर दिखे.

आश्चर्य है कि ईसा के 900 वर्ष पहले भारत का धातुकर्म इतना विकसिक था. शायद भारत में हर एक विषय पर शोध नहीं किये जाने से कितने ही तकनिकी मिट्टी में दफन हो गए.
कुछ तो हमारी भूल है जो हम इन तकनीक का संचय नहीं कर सके या फिर उन सबको विदेशी आक्रमणों ने समाप्त कर दिया.

जो भी है यह धरोहर एक आइना है जो आपसे पूछती है कितना पहचानते हैं हिंदुस्तान को? सच, इस 68 वर्षीय जिस हिंदुस्तान को आप जानते हैं उससे सैकड़ों गुना बड़ा है और इसपर बहुत नाज़ हैं हमें. है ना?

अशोक के 9 रतन रहष्य


270 ईसापूर्व में जब भारतवर्ष पर मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक ने शासन किया. कहते हैं कि कलिंग के युद्ध के बाद जब बहुत लोगों की मौत हुई, इसने सम्राट अशोक को पूरा बदल दिया और अशोक ने बुद्ध धर्म का पालन किया और अहिंसा का रास्ता अपनाया. ये सब बातें तो हम जानते हैं लेकिन एक और रहस्य था जो आज तक सही से नहीं जान पाए हैं. और यह था अशोक द्वारा बनाया गया नौ विशिष्ट लोगों का एक समूह जिसे नौ-रत्न भी कहते हैं.

ये नौ लोगों का समूह विज्ञान और अन्य विधाओं का ऐसा विशेष ज्ञान रखता था जिसका यदि गलत इस्तेमाल किया गया तो पृथ्वी का सर्वनाश हो सकता है. शायद इसी लिए इनको पूरी तरह से सुरक्षित रखा गया. ये ग्रन्थ निम्नलिखित है:

अधिप्रचार (Propaganda)
शरीरविज्ञान (Physiology)
रस-विधा (Alchemy)
सूक्ष्मजैविकी (Microbiology)
संचार (Communication)
गुरुत्वाकर्षण (Gravitation)
ब्रह्माण्डविज्ञान (Cosmology)
प्रकाश (Light)
समाजशास्त्र (Sociology)

इन सभी विधाओं के जानकार लोगों द्वारा लिखे गए शास्त्रों को कहाँ रखा गया वह किसी को नहीं पता. लेकिन विश्व के मैजिशियन इसको दुनिया के सबसे पुराने सोसाइटी के रूप में जानते हैं.

जो भी हो इसको किसी इतिहासकार ने मुहर नहीं लगाई हैं. इसके बारे में जो भी जानकारी है वह टैलबोट मुंडी द्वारा 1929 लिखी उपन्यास The Nine Unknown से ही है. अब टैलबोट ने सम्राट अशोक के बारे में कहाँ से सुना वह तो किसी को नहीं पता और ये सब सच है कि नहीं वह नहीं पता लेकिन कुंग-फू को इस किताब से लीक एक विधा के रूप में जाना जाता है. लेकिन यह आज तक एक रहस्य है, टैलबोट को शायद कुछ और भी पता रहा होगा लेकिन अब यह राज़ है.

इस बात के प्रमाण हैं कि इनको तिब्बत में कहीं संग्रक्षित किया गया है. इतना ज़रूर है कि यह बौद्ध धर्म के द्वारा चीन और जापान तक ज़रूर गया होगा. अपने देश में तो बौद्ध धर्म लुप्त हो गया और शायद इसी वजह से ये ग्रन्थ हमारे हाथ से निकल गए. कहीं सच में ये ग्रन्थ किसी गलत हाथ में तो नहीं पड़ गए. 

इन ग्रंथों में वैमानिकी और एक धातु को दूसरे धातु में बदलने की तकनीक भी है. लेकिन विश्वास नहीं होता हमारे देश के लोगों को. क्या है कि अपने देश का इतिहास इतना पुराना है कि प्रमाण तो हमारे पास रहते नहीं. लेकिन कुछ भी कहो अपने देश के तथाकथिक प्रबुद्ध लोग खंडन करने पहुंच जाते हैं और फैसला सुना देते हैं कि ऐसा कुछ नहीं था, सब झूठ है और पहला प्लेन राइट ब्रदर के नाम. ठीक है, लेकिन अगर हम दुनिया को शून्य नहीं देते तो शायद आज राकेट नहीं उड़ते. क्यों अपने देश के लोग इसे जीरो बनाने में लगे है? ज़नाब कितने भी जीरो लगा लो, बस एक वन चाहिए पूरे जीरो को सही मायने देने के लिए. पता हैं ये वन हैं आप खुद, चाहे तो जीरो के बांये लग के इसको अर्श पर पंहुचा दें या दाहिने लग के फर्श पर - फैसला आप का है. शायद इस देश को बहुत ज़रुरत है उन लोगों की जो इसको मिटटी में नहीं मिलाएं बल्कि इसकी मिटटी को माथे पर लगाएं. क्योंकि :
'कुछ बात हैं कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहाँ हमारा'.

Friday, 17 February 2017

महामारी हँसी की


1962, तंज़ानिया ( तब टांगञानिका). तंज़ानिया के कशाशा गाँव पास के एक बोर्डिंग स्कूल के तीन क्षत्राओं से शुरू हुआ हँसी का सिलसिला149 में से 95 शिष्यों में फैल गया. कुछ घंटों से ले कर 16 दिनों तक यही चलता रहा. इससे 12 से 18 साल के सभी शिष्य प्रभवित हुए. इससे शिक्षकों में से कोई प्रभावित नहीं था लेकिन इससे कोई अध्ययन-अध्यापन नहीं हो पा रहा था और कोई शिष्य एकाग्रचित नही हो पा रहा था. अंततः स्कूल को बंद कर दिया गया और सभी शिष्यों को घर भेज दिया गया, लेकिन यह महामारी उनसे गाँव में भी फैलने लगी. जिस गाँव से सबसे ज़्यादा लड़कियाँ थी, उस गाँव में अप्रैल से मई के बीच २१७ लोगों प्रभावित किया. अत्यधिक हँसने से उनके सांस संबंधी समस्या, दर्द, थकावट, मूर्छा जैसी समस्याएं होने लगीं.
जब स्कूल को दुबारा खोला गया तब भी यह समस्या नहीं सुलझी और फिर बंद करना पड़ा. बाद में स्कूल के खिलाफ केस दर्ज किया गया. आस पास गाँव में लगभग १००० लोग इससे प्रभावित हुए. सब कुछ ६ महीने के बाद एकाएक ख़त्म हो गया. लेकिन इसके पीछे क्या कारण था और कैसे इतने ज़्यादा लोग एक ही महामारी से ग्रसित हो गये यह आज तक रहस्य है.

40 सालों तक बिना कुछ खाए पिए जिन्दा रेहसक्ता है यह इंसान


प्रह्लाद जानी जिनको माताजी भी कहा जाता है एक साधु हैं और अम्बा देवी के भक्त हैं. आपको जानकार आश्चर्य होगा कि उन्होंने पिछले सत्तर वर्षों में एक भी बूँद पानी या भोजन नहीं ग्रहण किया है. 
इसका अध्ययन करने के लिए उन्हें पंद्रह दिनों तक चौबीस घंटे कैमरे की निगरानी में रखा गया और जहाँ रख गया वहां ऑक्सीजन के अलावा और कुछ भी नहीं था. इसके बाद भी उनको न तो कोई डिहाइड्रेशन हुआ और न ही कोई भूख लगी. उनके सारे हेल्थ पैरामीटर्स एक नौजवान के जैसे थे और कोई दिक्कत या कॉम्प्लिकेशन नहीं. 
आश्चर्य है, बिना किसी भोजन के और पानी के हम छः घंटे नहीं रह सकते और कोई चालीस साल तक कुछ भी ग्रहण नहीं किया. अब यह एक अनसुलझा रहस्य है और बहुत शक्ति है देवी अम्बा की भक्ति में. 
प्रह्लाद जी अगर हम सबको भी तरकीब बता दें तो हमारे दें तो हमारे देश की भुखमरी खत्म हो जाती और गरीबी भी गायब हो जाती. तब राजनीती करने के लिए नेताओं को कोई नया विषय ढूंढना पड़ता. 
वाकई अपने देश की गरीबी तो एक मज़ाक बन कर रह गई है, आज से नहीं मैडम के जमाने से लोग गरीबी हटाने में लगे है. गरीबी तो अब तक इन अमीरों के आलीशान कालीन पर रखा एक एंटीक पीस बन गया होगा. कुपोषण और भुखमारी के शिकार बच्चों के तस्वीरों को देखकर इनका दिल क्यों नहीं पिघलता. अपने बैंक के अकाउंट से ये एक प्रतिशत भी ये दे दें तो कितने लाखों बच्चों को भोजन मिल जाता लेकिन राजनीति साधने में कहाँ ख्याल है इन बातों का.

Wednesday, 15 February 2017

हरे रंग के बच्चे का रहष्य





बारहवीं सदी में इंग्लैंड के वूलपिट शहर में दो बच्चे - एक भाई एक बहन न जाने किसी अनजान जगह से आये. वो देखने में तो सामान्य बच्चों जैसे दीखते थे लेकिन उनका रंग हरे रंग जैसा था. वो सिर्फ कच्चे बीन्स खाते और उनके माता पिता का कोई पता नहीं चला. वो एक दूसरी अजीब भाषा में बात करते थे.
कुछ ही वर्षों में लड़के की तो मौत हो गई लेकिन वो लड़की बाद में बड़ी हुई और वो इंग्लिश भी सीख ली और लम्बे समय के बाद उसका हरा रंग भी गायब हो गया. वो बताती थी की वो और उसका भाई किसी पाताल की जगह संत मार्टिन से आये थे. लेकिन आज तक न तो ऐसे किसी पाताल-लोक का पता नहीं चला है और न ही ऐसे किसी इंसान का रंग पाया गया है.
ये बात तो बहुत पुरानी है लेकिन असम्भव सी नहीं लगती. कुछ लोग तो इसको परिकथा भी मानते हैं लेकिन सोचिये ऐसा कोई पातल-लोक सचमुच हो और वहां अब भी लोग रहते हों, या उनकी प्रजाति पूरी तरह से समाप्त हो गई हो. जो भी हो, वो हरे बच्चे कुछ तो जरूर विशेष थे, नहीं तो दूसरी भाषा में क्यों बात करते? क्यों वो कच्चे बीन्स ही खाते और उनकी चमड़ी हरे रंग की क्यों होती?
बहरहाल, ऐसा कोई और वाक़या दुबारा नहीं सुनाई पड़ा, लेकिन वो हरे बच्चे एक अनसुलझे रहस्य तो जरूर हैं.

Tuesday, 14 February 2017

भारत की हिस्ट्री क्या वो जासूस थी


बात जासूसी की हो और माता हारी का नाम न अाये, ऐसा हो नहीं सकता. लेकिन माता हारी की जासूसी से क्या रहस्य हो सकता है? दरअसल, जासूसी तो रहस्य से भरी होती है लेकिन माता हारी की जासूसी से बड़ा रहस्य है उसकी मौत का. माता हारी को फ्रांस में जासूसी के अारोप में शूट कर देने की सज़ा दी गयी थी. लेकिन सवाल यह है कि वो जासूस थी भी की नहीं. बहुत कम सबूत थे और चूंकि उसको आर्मी कोर्ट ने सज़ा दिया था जो सिविलन वाले कोर्ट से कम समय लेकर जल्दी से सज़ा देती है, उसमे गलती होने की पूरी संभावना है.

माता हारी एक डांसर थी और वो फेमस थी अपने हिन्दू मंदिरों में नृत्य करने के लिए. वह 1905 में फ्रांस अाई और उसने इंडोनेशिया मे सीखे नृत्य से काफी नाम और पैसा कमाया. उसने यह बात भी फैला दी कि वो एक मंदिर में पैदा हुई और उसको पुजारी ने नृत्य करना सिखाया और नाम दिया माता-हारी. सच तो यह था कि वो नीदरलैंड की थी और उसको हिन्दू नृत्य के बारे में थोड़ा बहुत अधकचरा ज्ञान था. यहीं से शुरू हुअा माता हारी की प्रसिद्धि और वो कितने ही बड़े लोगों के साथ उठने बैठने लगी. ऐसा माना जाता है वो पैसे के लिए फ्रांस की सीक्रेट एजेंट बन गई. बाद में वह जर्मनी के लिए भी जासूसी करने लगी. उसके इतने लोगो से संपर्क थे इसलिए इधर का उधर इनफार्मेशन हुअा होगा, लेकिन वाकई वो जासूस थी, इसका ठीक प्रमाण नहीं था, जर्मनी तो बाद में यह भी माना कि उसने कोई महत्वपूर्ण डेटा नहीं दिया था, सिर्फ इधर उधर की गॉसिप और कुछ नहीं. फिर भी, फ्रांस ने उसको डबल एजेंट मान कर शूट करने का सजा दिया था. 

सच में, माता-हारी हालत की शिकार हुई थी, ऐसा मानते हैं शायद किसी ने उसके खिलाफ पैसे दे कर उसको मौत की सज़ा दिलाई थी. पता नहीं, सबूत तो उतने नहीं थे, ऐसा हो सकता है. एक और थ्योरी है कि माता हारी सबसे बड़ी जासूस थी और उसने प्रथम विश्वयुद्ध में बहुत से इनफार्मेशन इधर उधर लीक किए थे इसीलिए भले ही सुबूत कम हों लेकिन इस बात के पक्के प्रमाण होने के कारण उसको सज़ा मिली. 

खैर जो भी है, सच अाज तक किसी को नहीं पता कि वो बस एक फेमस डांसर ही थी या फिर जासूस.

Monday, 13 February 2017

1995 में हुआ चमत्कार





अापको 1995 का वर्ष तो याद होगा जब एकाएक सभी गणेशजी की मूर्तियां दूध पीने लगी थी. वो दिन था 21 सितम्बर 1995 का, एक सामान्य सा दिन और उस दिन कोई गणेश चतुर्थी भी नहीं थी. एक जन ने दिल्ली के एक मंदिर में जब गणेशजी की मूर्ति को दूध चढ़ाया तो महसूस किया कि दूध खतम हो रहा है यानी गणेशजी दूध ग्रहण कर रहे हैं. जब उस पात्र को मूर्ति के पास चम्मच से लगाया तो और भी तेजी से दूध खतम हो रहा था. बस फिर क्या था, उस समय तो व्हाट्सऐप तो था नहीं लेकिन अपना बी.एस.एन.एल तो था पूरे भारत में एक दूसरे को फ़ोन कर के सभी एक दूसरे को अपडेट करने लगे और हर कोई भागा मंदिर, दूध पिलाने. 

सबने महसूस किया कि मूर्ति के सामने दूध ले जाने से दूध समाप्त हो रहा है. दूधवाले भैया तो दोपहर तक मालामाल होने लगे और गणेशजी ही क्या नंदी और सभी भगवान की मूर्तियां दूध ग्रहण कर रही थीं. यह खबर पूरे बिश्व में फैल गई और भारत ही क्या इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी सभी जगहों में लोगो ने कतार लगा कर दूध पिलाना शुरू कर दिया. 

दिल्ली का दूध का सेल्स ३०% बढ़ गया और इंग्लैंड का एक स्टोर ने २५००० पिंट दूध बेचा था (१ पिंट = 0.4732 लीटर). 

इसको एक अफवाह और वहम भी कुछ लोगो ने कहा और अपने देशी वैज्ञानिकों ने बताया कि कोशिकार्षण के कारण दूध का पृष्ठ तनाव के वजह से मूर्ति से लगकर बह रहा है. बहुत खूब, लेकिन पहले ऐसा क्यों नही होता था सरजी? विदेशी वैज्ञानिकों ने तो सब खारिज कर दिया था. खैर, शाम तक दूध पीने का सिलसिला खतम हो गया. कहां गया बोगस थ्योरी अापका सरजी? 

अपने वैज्ञानिक चचा लोगो मे एक खास बात है, अाज से नहीं न्यूटन साहब के ज़माने से, बात समझे अाधा या पूरा, बोलेंगे पूरा और कुछ भी जारगन वाली भाषा में समझाएंगे ताकि अाप बिना समझे बोल पड़े - ओ ओ, ओके, ओके. यह वैसे ही है जैसे अगर मैं अापको बोलूं अाप भगवान को हिबिस्कस रोसा साईनेनसिस चढ़ा सकते हैं तो अाप क्या समझेंगे? वहीं गुड़हल का फूल बोल दूँ तो अाप समझ जाएंगे, ऐसे ही रखे जाते हैं साइंटिफिक नाम. वैसे अापको राना टिग्रिना साहब तो याद ही होंगे, ऐसा लगता हैं जैसे राना साहब कोट पहन के बैठे होंगे, लेकिन यह साइंटिफिक नाम हैं मेंढक का. क्या राजस्थान में इनको राणा टिग्रिना बोलते होंगे? अच्छा अगर गुस्सा हो गए तो राणा साहब म्हारी गलती तो माफ कर देंगे न? इस बात प्र अगर चंकी साहब होते तो ज़रूर बोलते - अाई ऐम जोकिंग? 

वाकई, उस दिन क्या हो रहा था यह तो नहीं पता. मै खुद तो उस दिन दूध नहीं पिलाया था लेकिन मैंने लोगो से सुना था और लोगो ने पूरे विश्वास से मुझे बताया था. कुछ लोगो ने इसको एक मास-प्रोपोगंडा भी कहा. फिर भी इतने लोग एक साथ तो हिप्नोटाइज नही किए जा सकते. अगर पूरे विश्व में ऐसे ही कोई परमात्मा की भक्ति फैला दे तो कोई किसी की कैमरे के सामने जान न ले. मगर अफसोस, न जाने क्यों रोज़ गणेशजी दूध नहीं पीते? अगर पीते तो हम कैमरे में कैद कर उनको दिखा देते और वो कैद से सबको छोड़ देते, फिर वो भी थोड़ा दूध बहाते, खून नहीं. साहब, हम बिना दूध के बच्चों को पाल लेंगे लेकिन अातंक के साये में जीना तो बहुत दुखदाई है वो भी तब जब मानव इतना साइंस मे अागे हो गया है कि वो जानता है कि - 'गणेशजी दूध नहीं पीते'.

Sunday, 12 February 2017

एक ऐसा हिस्ट्री जिसे कोई नी भूल सकता


7. अब्दुल हामिद





अापको परमवीर चक्र से सम्मानित अब्दुल हामिद तो याद ही होंगे. उनके वीर गाथा को कोई नहीं भूल सकता. लेकिन अाप सोच रहे होंगे, उनको रहस्य में क्यों रखा मैने. वो इसलिए क्योंकि अाजतक पाकिस्तान की आर्मी मानने को तैयार नहीं कि गन लगी जीप ने कैसे उनके सात पैट्रन टैंक उड़ा दिए? 

बात 1965 की है जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ा था. उस समय कंपनी क्वार्टर मास्टर हवालदार के पद पर नियुक्त थे अब्दुल हामिद जो चीमा गाँव के कीचड़ वाले रास्ते से गन लगी जीप से गुजर रहे थे. उस समय सामने अा रही थी पाकिस्तान की पैट्रन टैंक. उस समय सेना के मुख्य पद पार् मियां मुशर्रफ भी थे. जैसे ही टैंक सामने अाए अब्दुल हामिद अपने साथियों के साथ टैंक के कमजोर हिस्से पर हमला कर दिया और ऐसे ही एक के बाद एक सात टैंक उड़ा दिए, लेकिन अंत में वो लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए. 

टैंक की मारक क्षमता और थ्री-नॉट-थ्री वाली जीप में तो बहुत अंतर है लेकिन ये उनका हौसला ही था जिसने इतने ढेर सारे टैंक उड़ा दिए. सलाम है उनकी युद्ध-कौशल को. बाद में उस जीप पर अमेरिका ने रिसर्च भी किया कि कैसे उसके टैंक उस जीप के अागे पानी भरने लगे थे लेकिन कुछ नहीं मिला, मिलता भी कैसे, युद्ध अायुध नहीं योद्धा लड़ते हैं और जिसके अांखों में तिरंगा और देश के लिए भक्ति भरी हो उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं, इसीलिए तो इंडियन आर्मी का नारा है - 'When going gets tough, tough gets going', यानी जब चलना भी मुश्किल हो, सभी मुश्किलें भी चलेंगी. सिर्फ तकनीक से नहीं जज्बे से लड़ते हैं अब्दुल हामिद जैसे फौलाद जिनको हम सलाम करते हैं.

Friday, 10 February 2017

सोने का भंडार आज भी छुपा हुआ है

बिहार के राजगीर में स्थित सोन-भंडार गुफा को सोने का भंडार कहा जाता है. ऐसा कहा जाता है कि इस गुफा में बिम्बिसार ने अपने सोने के खज़ाने छुपा रखे हैं. उस समय बिम्बिसार के बेटे अजातशत्रु ने उसे कैद कर के यहीं रखा था. बिम्बिसार को धन और वैभव का बहुत शौक था और इनको वह संग्रह भी करता था. ऐसा माना जाता है कि बिम्बिसार ने अपने पत्नी से एक खास जगह उन सोने के खज़ानों के छिपा दिया. इस गुफा में उस खजाने का नक्शा और संबंधित जानकारी तो शंख लिपि मे लिखी गई है लेकिन उसको एन्क्रिप्ट कर के लिखा गया है. अाज तक उसको कोई डिक्रिप्ट नहीं कर सका है. 

अंग्रेज़ों ने तो तोप से इसके मुख्य द्वार को उड़ाया की कोशिश की लेकिन अागे उनको कुछ नहीं मिला इसलिए अागे की योजना टाल दी गयी. या यूँ कहिए नक्शा समझ नहीं अाया, कैसे समझ अाता नक्शा बना ही है ऐसा. इस गुफा के पास एक और गुफा है जिसमें जैन मूर्तियां बनी है. उन मूर्तियों में एक विष्णु जी की मूर्ति भी मिली है जो अधूरी बनी है. उसको क्यों अधूरा छोड़ा गया और इस गुफा में वह ख़ज़ाना कहां है, यह तो अाज तक रहस्य है.

Thursday, 9 February 2017

दुनिया का सबसे पहला पुनर्जन्म





शांति देवी पुनर्जन्म पर विश्वास करने का पहला ऐसा केस था जिसने न सिर्फ भारतीय बल्कि विदेशी पत्रकारों को भी पुनर्जन्म पर विश्वास करने पर मजबूर कर दिया. इतना ही नहीं शांति देवी के केस पर महात्मा गाँधी ने एक जांच दल का गठन किया और उसके इस जन्म से पिछले जन्म के तारों को जोड़ दिया. 

शांति देवी का जन्म 11 दिसम्बर 1926 में दिल्ली के एक छोटे से कस्बे में हुआ था. जब तक वह ठीक से बात नहीं करती थी, तब तक कुछ नया नहीं था. लेकिन जब वह चार साल की हुई तो वह अपने पति और बच्चों के बारे में बात करने लगी. वैसे बच्चों के मुह से ऐसे उठपटांग बातें कोई नयी बात तो नहीं. बच्चे तो कल्पनाशील होते हैं और किसी रोल में खुद को ढाल लेते हैं, कभी वो डॉक्टर बनेंगे तो कभी कुछ. मेरे एक भांजे ने बचपन में ही डिक्लेअर कर दिया था कि मैं ट्रक ड्राइवर बनूँगा. वैसे ट्रक ड्राइवर की नौकरी सम्माननीय है लेकिन ज्यादातर कोई ऐसा नहीं बनाने की तमन्ना रखता. अच्छा, आपने कभी किसी को टीचर बनने की तमन्ना रखते देखा है, कम ही ऐसा होता है. लगता है ज्यादातर टीचर लोग एक्सीडेंटली टीचर बनते हैं. पता नहीं, लेकिन टीचर्स डे 5 सितंबर के दिन सर्वपल्ली राधाकृष्णन को याद कर के गौरव की अनुभूति हो रही है. 

शांति देवी बताती थीं कि उनका पति मथुरा में द्वारकाधीश मंदिर के सामने एक कपडे को दुकान चलाते हैं और उनका एक लड़का भी है. वह खुद को चौबाइन कहलाती. बचपन के इस खेल को लोग हंसी में टाल देते थे लेकिन धीरे-धीरे मामला थोड़ा भिन्न होने लगा जब वह अपने पिछले जन्म में उसके पति के बारे में बताती और खाते समय वह बताती कि वह कौन सी मथुरा की मिठाई पसंद करती थी. ऐसा किसी बच्चे के लिए सोच पाना सामान्य तो नहीं. और तो और वह अपने पिछले जन्म के पहनावे के बारे में बताती, वह बताती थी कि उसका पति गोरा था और उसके चेहरे पर निशान था. 

जब वह छः साल की हुई तो उसने अपने बच्चे के सर्जरी से पैदा होने की बात बताई तो माता-पिता को बहुत हैरानी होने लगी. वह मथुरा जाने की जिद्द करने लगी. बाद में रामजस हाई स्कूल के टीचर ने उससे उसके पति का नाम पूछा, पहली बार उसने अपने पति का नाम केदारनाथ चौबे बताया और फिर द्वारकाधीश मंदिर के सामने के पते पर केदारनाथ चौबे को खत लिखा गया. केदारनाथ के एक रिश्तेदार कांजीमल जो दिल्ली में रहते थे, उन्होंने शांति देवी से मुलाकात की. उसने मथुरा के घर के बारे में सटीक बाते बताई जो वही बता सकता है जो वहां रहा हो. उसने यहाँ तक एक कुँए का ज़िक्र किया जो उनके घर में था और उसके बगल में एक गमले में छिपाए हुए पैसों के बारे में भी बताई. 

जब कांजीमल ने केदारनाथ को ये बाते बताई तो उसे यकीन हो गया कि वह उसकी पत्नी लुगड़ी बाई है जो 1902 में पैदा हुई और जिसके 10 वर्ष की अवस्था में केदारनाथ के साथ शादी हुई. केदारनाथ की दो कपडे की दूकान थी एक हरिद्वार में और दूसरी द्वारकाधीश मंदिर के सामने, धार्मिक होने के कारण लुगड़ी बाई ने मथुरा में रहना पसंद किया. लुगड़ी बाई की पहली प्रेग्नेनसी में दिक्कते आईं और सी-सेक्शन के बाद भी बच्चा बचाया नहीं जा सका. दुबारा फिर जब वह प्रेग्नेंट हुई तो उसके सर्जरी के बाद 25 सितम्बर 1925 में मौत हो गई लेकिन बच्चे को बचा लिया गया. उसका दूसरा जन्म 11 दिसम्बर 1926 में दिल्ली में हुआ. 

शांति देवी को महात्मा गाँधी के सहयोग से एक टीम ने उसके पिछले जन्म के स्थल मथुरा तक ले गए. वहां कुँआ तो नहीं था लेकिन बाद में केदारनाथ ने बताया की उस कुँए को ढक दिया गया है और उसने जिस गमले में पैसे रखे थे उसकी भी पुष्टि की. शांति देवी अपने पिछले जनम के माता-पिता और अपने सभी रिश्तेदार से मिली. ज़रा सोचिए कैसा महसूस होगा की आपके सामने जो आपका परिचित है वह मृत है और उसकी आत्मा से युक्त कोई सामने है जिससे आप अपने सारे पुराने यादों के बारे में बात कर सकते हैं. बहुत अजीब लगा होगा उन लोगों को और मुख्य रूप से उनके पिछले जनम के माता पिता को. सबसे बड़ी मुश्किल तो शांति देवी के अपने माता-पिता को हुआ होगा.

पुनर्जन्म एक पेंचीदा विषय है, जहाँ हिन्दू इसपर विश्वास कर लेते हैं बाकि धर्मों में इसपर कोई विश्वास नहीं करता. डॉक्टर इयन स्टीवेंसन ने शांति देवी के केस पर पूरा रिसर्च किया और ऐसे विषयों के आलोचक होने के बावजूद भी उन्होंने इस केस को काफी अलग और अविश्वश्नीय लेकिन सत्य बताया. 
जो भी हो, ऐसे तो बहुत से मामले बाद में पाए गए. आपको ऋषि कपूर की क़र्ज़ फिल्म तो याद होगी, इसी विषय पर ओम शांति ओम भी आयी. दोनों फिल्मों में दो बात तो कॉमन हैं वह है पुनर्जन्म और शांति नाम. क़र्ज़ फिल्म में शांति नाम किसका था? एक बार फिर देखिए और आपको जवाब मिल जायेगा.

Wednesday, 8 February 2017

रेहष्यमाई हिम् मानव





हिमालय की खूबसूरत वादियों और बर्फ से ढकी पर्वत-श्रृंखलाओं की खूबसूरती तो पृथ्वी पर स्वर्ग जैसा है, लेकिन इसी स्वर्ग को बंदूकों ने नर्क बना रखा है. फ़र्ज़ करिये, सभी देशों के राजनयिक और राजनेता यहाँ खुद आकर इस स्वर्ग की मनोरम दृश्य को देखकर मंत्र-मुग्ध हो जाते और सारे बैर भूल जाते. ऐसा एक देश और दूसरे देश को बाँट कर रखा है कि क्या कहना. खैर, यह तो भविष्य ही बताएगा कि आगे क्या होगा, लेकिन आज तो ऐसा ही लगता है जैसे हिमालय की इस खूबसूरती को किसी की नज़र लग गई है. या फिर नज़र ही कमज़ोर हो गई है, और इतनी कमज़ोर कि एक भाई दूसरे को पहचान नहीं पाता. गले लगने के जगह गले काटे जा रहे हैं. उम्मीद है, एक दिन एक दूसरे से माफ़ी मांग के हम आगे बढ़ेंगे. बस आँखे नम हो जाती हैं उन शहीदों के परिवारों की सोचकर. देश के लिए अपनी जान देने वालों उन शहीदों और उनके परिवारों की देशभक्ति को हम सल्यूट करते हैं और धन्यवाद देते हैं. 

हिमालय की वादियों में कितने रहस्य और कितने अनसुलझे सवाल हैं. इन सवालों में से एक सवाल येती के अस्तित्व का है. येती को हम इनको हिम-मानव नाम से भी जानते हैं. इनके बारे में कितने ही लोक-कथाएं प्रचलित हैं और उन्नीसवीं सदी में इनके बारे में विदेशी सैलानियों और लेखकों ने भी इनके बारे में लिखा. येती को नेपाल, भूटान और तिब्बत के हिमालय की पर्वत-श्रृंखलाओं में देखा जाने का दावा किया जाता है. 

326 BC, सिकंदर ने किसी येती को देखने का दावा किया था जब वह हिन्दू घाटी पर आक्रमण किया था. लेकिन जानकार बताते हैं कि येती कम ऊंचाई पर नहीं देखा जाता. तो इस दावे को माना नहीं गया. 

1921 में लेफ्टिनेंट कर्नल चार्ल्स-हारवर्ड-बरी के नेतृत्व में एवेरेस्ट की चढ़ाई के दौरान उन लोगों ने कुछ ऐसे पद-चिन्ह देखे जो किसी बहुत बड़े जानवर के हो सकते थे और इनको देखने पर मानव जैसे दो पैर के जानवर जैसे निशान थे. उन लोगों ने अपने पुस्तक में इस बात का ज़िक्र किया की उनका सहयोगी गाइड शेरपा (जो वहीँ का निवासी था) उनको बर्फ के जंगली मानव का पद-चिन्ह बताया जिसे वह मेंतो कहता था. मेंतो का अर्थ मानव-भालू है. 

1925 में N. A. Tombazi और उनके सहयोगियों ने दावा किया कि उन्होंने ज़ेमु ग्लेशियर के पास एक प्राणी को देखा जो देखने में मानव जैसा दीखता था. वह काला था और पूरे शरीर में फर से युक्त था. उसके पैर के निशान मनुष्य जैसे थे. 

1939-45 में, द्वितीय विश्व यद्ध के दौरान पोलैंड के एक सिपाही Sławomir Rawicz साइबेरिया से बच कर भागा था. वह हिमालय के रास्ते भारत जब आया तो उसने बताया कि उसके रास्ते को दो येती ने रोका था. 

1950 में, जेम्स स्टीवर्ट जो इंग्लैंड के अभिनेता थे ने येती के अवशेषों को अपने सामान में चुपके से लन्दन ले गया था. 

1951 में, येती का रहस्य और भी प्रसिद्द हो गया जब एरिक शिपटन ने येती के बड़े पद-चिन्हों को कैमरे में कैद कर लिया. वे फोटोग्राफ बहुत से संदेह पैदा करते है और इनके प्रमाणिकता पर बहुत से सवाल किये गए. 

1953 में, एडमंड हिलेरी और तेनज़िंग ने जब पहली बार एवेरेस्ट की चढाई पूरी की उन्होंने अपने पुस्तक में येती के बारे में कुछ ज्यादा न बोलकर इसको इसको अविश्वसनीय बताया. तेनज़िंग ने हालाँकि इतना ही बोला की उसने कभी येती नहीं देखें, लेकिन उसके पिता ने इस विशाल हिम-मानव को दो बार देखा था. 

1986 में, प्रसिद्द पर्वतारोही Reinhold Messner दावा किया कि उसने येती को आमने सामने देखा है. 

2013 में, जीन-वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि येती का रहस्य खुल गया है और यह पाया गया कि यह पोलर बेयर की प्रजाति का दूर का रिश्तेदार है और यह प्रजाति 40000 साल पहले समाप्त हो गयी थी. इसी के एक साल बाद येती के बालों का DNA विश्लेषण आया जिसमें इसको भालू की हिमालय की एक प्रजाति माना जा सकता है. लेकिन बाद में इसको विश्लेषण के त्रुटि के लिए कीतने सवाल और उठे. 

कुल मिला जुला कर, हमारा विश्लेषण यह है कि येती बस एक रहस्य है. जो देखे हैं उनपर सवाल उठते हैं और जो इसको भालू मानते हैं उनके पास ठोस प्रमाण नहीं हैं. कुछ जो इसे लुप्त प्रजाति मानते हैं वो भी गलत हैं क्योकि लुप्त प्रजाति को कुछ लोग कैसे देख सकते हैं. वैसे ही जैसे हम डाइनासोर को विलुप्त मानते हैं लेकिन कोई उनको देखता थोड़े है. एक सवाल यह है की ये येती भाई इतने छुप के क्यों रहते हैं, ये मनुष्य की प्रजाति है या भालू के, सब रहस्य है. 

Tuesday, 7 February 2017

पत्थर के रेक्रोड


History of  Stone


तिब्बत और चीन के मध्य स्थित है - बोकना पर्वत. इस पर्वत की एक गुफा में 716 पत्थर के गोल रिकॉर्ड मिले हैं. ये रिकॉर्ड ग्रामोफ़ोन के रिकॉर्ड जैसे ही लगते हैं. ये पत्थर के रिकॉर्ड 1937 में खोजे गए लेकिन ये पत्थर के रिकॉर्ड 10,000 साल पुराने हैं. आपने सही पढ़ा ये 10,000 साल पुराने हैं. 

इन पत्थर के रिकार्ड्स में बीच में ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड जैसे ही छेद है और गोल उभार हैं. इनको रूस के वैज्ञानिक डॉ. सर्जीएव ने परीक्षण किया तो पाया की ये पत्थर कुछ तो अंकित किये हुए हैं, लेकिन उनमें कोई इनफार्मेशन है या आवाज़ है या विडियो, इसका पता कर पाना मुश्किल हैं क्योकिं हमारे पास कोई यन्त्र तो है नहीं जो इनको बजा सके. इन पत्थरों पर जब किरणे डाली जाती हैं तो एक ख़ास तरंगे निकलती है. 

भारत का इतिहास बहुत रहस्यों से भरा है. और रहस्य इसलिए भी बन गए क्योंकि कम से कम 1000 साल से तो हम पर कोई न कोई शासन करता रहा और गुलामों की बात कौन सुनता है. अगर कोई गज़नी को पत्थर के रिकार्ड्स दिखता तो वह तो उनको तोड़ कर उसमें सोना ढूंढता इसलिए सब कुछ हम छुपाते रहे और छुपते रहे और दुनिया आगे बढ़ती गयी. यूरोप में जब 14वीं से 17वीं शताब्दी में जहाँ रेनेसा (Renaissance) हो रहा था तब हमलोग सुल्तान लोगों का दरबार सजा रहे थे और फिर मुग़ल और बाद में गवर्नर साहेब की सेवा हो रही थी. जब आज़ादी मिली तो हम जैसा शून्य से शुरू हुए, वही शून्य जो हमने दिया था दुनिया को नहीं तो रोमन नंबर से भेंड़ गिनने वाले कभी राकेट नहीं उड़ा पाते. जैसे कोमा से कोई जगे और दुनिया को देखने लगे, कैसा लगा होगा. कितना दबाव रहा होगा चाचा नेहरू पर. भारत को कुछ बनाने में और इसके हुनर को दुनिया के प्लेटफार्म पर फिर से लाने के लिए. वक़्त लगा लेकिन हम लगे रहे और आज कितनी मांग है भारतीय इंजीनियर की. हमारी शिक्षा प्रणाली को कितना भी कोस लो लेकिन आज इतना स्किल है अपने देश में कि हम पूरी दुनिया को सर्व करते हैं. हमारे प्रोग्रामर, कंप्यूटर प्रोफेशनल का लोहा मानते हैं सभी. लेकिन अभी भी बहुत सुधार की जरूरत है यह तो आप भी मानते होंगे. बस यही तो हमारी खासियत है, हम संतुष्ट नहीं होते और इसी वजह से हम लोगों को कोई मिटा नहीं पाया: 
कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी, 
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहाँ हमारा. 
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा.

Monday, 6 February 2017

5000 सालों से जिंदा है वो


मध्यप्रदेश का एक छोटा शहर है बुरहानपुर। यह खंडवा से लगभग 80 किलोमीटर पर स्थित है. यहाँ पहाड़ी की उचाईयों पर है - असीरगढ़ का किला. 
इस किले को तो अस अहीर नाम के हिन्दू शासक ने बनवाया था लेकिन बाद में धोखे से नासिर खान ने इसको हड़प लिया। 

इस किले के चारों तरफ जंगल और इस किले के आस पर कोई रिहाइशी मकान या बस्ती नहीं है. वैसे तो यहाँ कोई आता-जाता नहीं लेकिन कभी कोई आया तो उसको कुछ ऐसे अनुभव हुए जिससे या तो वह पागल हो गया या फिर उसको लकवा मार गया. स्थानीय लोगों में यहाँ अश्वस्थामा के होने की भ्रांति है. कभी कोई हल्दी मांगने आया तो कभी किसी ने मक्खन. लेकिन उस व्यक्ति का हुलिया वही रहता है और उसके माथे से खून निकलता रहता है.

महाभारत की कथा यदि आपको थोड़ी कम याद हो तो आइये अश्वस्थामा के बारे में थोड़ा जान लें. अश्वस्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे. वही द्रोणाचार्य जो कौरव और पांडवों के गुरु थे. महाभारत का युद्ध जब चला तो द्रोणाचार्य को कौरव के तरफ से युद्ध करना पड़ा. जब अश्वस्थामा को द्रोणाचार्य की मृत्यु की खबर मिली तो उनसे ब्रह्मास्त्र चला कर पड़ावों के सभी पुत्रों को मार गिराया. सिर्फ अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित बचा था जो उत्तरा के गर्भ में पल रहा था. जब अश्वस्थामा उसे भी मारने के लिए ब्रह्मास्त्र निकाला तब श्री कृष्ण ने उसके मस्तक से मणि निकाल ली और उसको शाप दिया कि वह इसी मृत्युलोक में रहेगा और भटकता रहेगा. यह वही सिर का घाव है जो 5000 साल में भी नहीं भरा और आज भी जिसमें से खून निकलता रहता है.

असीरगढ़ के किले के पास एक शिवमंदिर है. इस शिवमंदिर के पास एक द्वार है जो खंडवा के वन की तरफ खुलता है. खंडवा आपको याद नहीं हो तो इसे मैं खाण्डव वन बोल देता हूँ. अब याद आया यह वही खाण्डव वन है जिसको अर्जुन को अग्निदेव ने वरदान स्वरुप यह वन, गांडीव धनुष और अक्षय तरकश दी थी. इस वन का महाभारत काल से बहुत महत्व है और इसलिए आज तक इसी वन से आकर इस शिवमंदिर में कोई फूल और गुलाल चढ़ा जाता है. इस मंदिर में कोई पूजा हो, ये फूल कौन चढ़ा जाता है इस मंदिर के पास एक नदी है - उतावली नदी. कहते हैं की अश्वस्थामा इसी नदी से नहाकर फूल चढाने आते है. 

खैर जो भी है अश्वस्थामा अमर हैं या नहीं यह तो कह पाना मुश्किल है लेकिन कोई माने या न माने, कुछ तो अदृश्य शक्ति जरूर है यहाँ और कई अन्वेषकों ने यहाँ उसे महसूस भी किया है. आस-पास के लोगों की अनुभूतियाँ भी हैं और कुछ मान्यताएं भी हैं. लेकिन यह एक अनसुलझा रहस्य है. 

रेहष्यमाई ट्रैंगल जापान का

प्रशांत महासागर में, जापान के समुद्री तट के पास एक जगह है जिसको ड्रैगन ट्रायंगल कहते हैं. समुद्र में स्थित इस इलाके में त्रिकोण का निर्माण होता है जापान, बोनिन के द्वीप और फिलीपीन्स के बीच. इस जगह पर विद्युत-चुम्बकीय तरंगे बरमूडा ट्रायंगल जैसी हैं. यदि आप बरमूडा ट्रायंगल को ग्लोब में देखें तो उसके ठीक उलट आप जापान के पास आप इस त्रिकोण को पाएंगे. 

यह जगह हमेशा से एक रहस्य बनी हुई है. यहाँ कितनी ही जहाजें गायब हुईं और न जाने कितने भुतहे जहाज लोगों ने देखे. इनमें कितने लोग मारे गए.

सन् 1200 में कुबलई खान ने अपने समुद्री बेड़े जापान पर हमला करने के लिए भेजे लेकिन उसके सभी जहाज इसी ट्रायंगल में फंस के रह गए और 40000 लोगो मारे गए. 

सन् 1800 में, लोगों ने देखे एक रहस्यमई महिला को जो जहाज से जाती दिखती थी. वो भूत थी या नहीं यह तो मुश्किल है कहना लेकिन उसने बहुत लोगों को डराया और लोगों ने अपने रास्ते बदल लिए. 

इस इलाके पर शोध करने के लिए जापान ने एक जहाज भेजा जो कभी वापस नहीं आया और उसमें 31 सदस्य मारे गए. उसके बाद जापान ने इस इलाके को प्रतिबन्धित कर दिया. 

बाद में, 1995 में लैरी कुशके ने अपनी किताब 'Bermuda Triangle Mystery Solved' में दवा किया कि ड्रैगन ट्रायंगल से पहले कई ज्वालामुखी हैं जिसमे ये सभी जहाजें फंस जाती थीं. लेकिन उस रहस्यमई महिला के बारे में कुछ नहीं कहा.

Sunday, 5 February 2017

My first blog

यह मेरा पहला ब्लॉग है  दोस्तों आप को मेरे ब्लॉग पर दुनिया की ऐसे बहोत से रहस्य जानेको मिलेंगे
मेरा हर एक पोस्ट एडवेंचर से भरा हुआ होगा i hope मेरे पोस्ट आप को जरूर पसंद आएंगे धन्यवाद्